बचपन वाला खेल निराला था

बचपन वाला खेल निराला था
बचपन वाला खेल निराला था कवि: नीतिश कुमार

चलते-चलते गिर जाऊं मैं मां हाथ थाम लेती है,
कोई न समझा हमको सिर्फ वही समझती है।
जिद मैं करूं चांद सितारों का मां इनकार नही करती,
झूठा ही सही मगर सामने आसमान होता था।
चांद सितारें सब अपने हाथों में रहता था,
मैं अपने मां का बेटा राजदुलारा था।
इस जवानी से बेहतर बचपन बाला खेल निराला था,
कहां गया वो दिन जो अदभूत अलबेला था।

कोई रोके मुझको रूके न मेरी कदम,
देख यह तेवर सब रह जाएं दंग।
यारों संग मिलकर खूब मचाएं हुरदंग,
बड़ा निराला था बचपन।
बेबाक लड़कपन वाला किस्सा सुहाना था,
जैसे सब अपना दिवाना था।
इस जवानी से बेहतर बचपन बाला खेल निराला था,
कहां गया वो दिन जो अदभूत अलबेला था।

न कोई जंजीरो में जकड़ा था,
आजादी का मतलब कुछ और ही समझा था।
हंसते गाते गुज़र जाएं अपना हर दिन,
दर्द भी बेअसर दुख भी न लगता था मुश्किल।
सुबह भी खिलता शाम भी हंसता,
वो भी क्या खूब बचपना था।
इस जवानी से बेहतर बचपन बाला खेल निराला था,
कहां गया वो दिन जो अदभूत अलबेला था।

मिट्टी में रंगकर कभी जो लौटू घर,
पापा बिना डांट के नजरों से न होने देते ओझल।
डर से बदन सिहर जाता था,
रोकर अपने पक्ष में सहानभूति का माहौल बनाता था।
सुनकर रोना मेरा मां दौड़ी चली आएं,
मां के साये में अपना हर अंदाज मतवाला था।
इस जवानी से बेहतर बचपन बाला खेल निराला था,
कहां गया वो दिन जो अदभूत अलबेला था।

न कोई छल कपट न कोई लालच था,
कौन है रब? कौन है बुद्ध? कोई फर्क न मालूम था।
गंगा सी पावन वाणी था,
अपने अंदाज से हर किसी का मन मोह लेता था।
अब जो रूठ जाते हैं उनको भी खूब हंसाता था,
तन मन सब निर्मल उजाला था।
इस जवानी से बेहतर बचपन बाला खेल निराला था,
कहां गया वो दिन जो अदभूत अलबेला था।

कवि: नीतिश कुमार
Kavi: Nitish Kumar
Publish By The DN Classic copyright holder 18th August, 2016.

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