
निगाहें चेहरों में ढूंढ़ता खूबसूरती है,
असल में जन्नत तो ये प्रकृति है।
इंसान का औकात उसके रुतबे से मापा जाता है,
बेसकिमती सांसे देने वाली ये प्रकृति क्या मांगता है।
है निशस्त्र तो यूं ही तबाह करते जा रहे हो,
जिस दिन इसने दिखा दिया अपना रौद्र रूप मौत के आगे-आगे भागोगे।
रोक न पाओगे अपनी बर्बादी ,
धरती के किसी कोने में दफ्न हो जाओगे।
खेल रही है जिन्दगी आग के सैलाब से,
भर गया है धरती पत्थरों की इमारतों से।
सांसे उलझ रही है काले धुआं में,
उम्र से पहले समा रहे हैं मौत की कुआँ में।
विकास कि बेसुध नशा में हमने सीमाओं का हर बंधन तोड़ दिया,
तरक्की तो खूब किया लेकिन स्वयं को प्रकृति के खिलाफ मोड़ दिया।
पानी का अस्तित्व भी खतरा में है,
हर शहर के जल में आईरन प्रचुर मात्रा में है।
मिट्टी का आबरू भी अब तार-तार हो चुका है,
अपनी उर्वरकता बर्बाद कर चुका है।
अपनी मौत का जहर खुद ही बोया रसायन से मिट्टी में,
फसल कि खराब गुणवत्ता से आज हर कोई है बीमारी के जद में।
प्लास्टिक बरदान से ज्यादा अभिशाप बन चुका है,
माटी स्वयं की सृजन क्षमता खो चुका है।
पानी और हवा भी अब कहां शुद्ध है,
जीवन स्वयं जीवन के विरुद्ध है।
मनुष्य अपने आत्मघाती आदतों से मजबूर है,
प्रकृति का महाविनाशकारी महाप्रलय कहां दूर है।
जंगल भी समाप्ती की ओर है,
जलवायु परिवर्तन का अनियंत्रित शोर है।
बिगड़ गया है मिजाज मौसम का,
देख रहे हो खौफ बिन मौसम बरसात का।
सुखा है गांव डूबा शहर है,
भरा-भरा है नाला सुखा नहर है।
कभी बाढ़,कभी सुखा,कभी भूकंप,कभी समुद्री झोका है,
कुदरत का न्याय करने का अलग ही तरीका है।
खुद को बचा सको तो बचा लो प्रकृति से जुड़कर,
हो जाओ बेफिक्र तुम स्वयं को समर्पित कर।
कवि: नीतिश कुमार
Kavi: Nitish Kumar
Publish By The DN Classic copyright holder 15th August, 2020.